ऐय्यारों की दुनिया
- नितिश
- Jan 16, 2022
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२८ वर्ष की आयु में जब देवकीनंदन खत्री ने अपनी पहली रचना ‘चंद्रकांता’ हरिप्रकाश यन्त्रालय से प्रकाशित की थी तो उन्होंने सोंचा नहीं होगा कि वह ऐसी परंपरा को जन्म देने जा रहे हैं जो आगे चलकर न केवल पोपुलर साहित्य का दर्ज़ा पायेगा बल्कि उसे महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों के व्यंग्य बाण भी झेलने पड़ जायेंगे | १८७० में प्रकाशित पंडित गौरीदत्त की ‘देवरानी जेठानी की कहानी’( फिलहाल अमेज़न पर उपलब्ध को पहली औपन्यासिक कृति का दर्ज़ा मिला तो उसके करीब १५ वर्ष पहले बंगला में उपन्यास (बंगला से ही हिंदी में उपन्यास शब्द को ग्रहण किया गया) और मराठी में कादम्बरी संज्ञा के साथ इस विधा का जन्म हो चूका था | उर्दू में इसे नाविल कहा गया | हिंदी में मुख्यतः इसकी मौखिक परंपरा तो सदियों से कायम थी हीं | नागरी लिपि में इसके पहले बैताल पचीसी और सिंहासन बत्तीसी जैसी कथा पुस्तकें प्रकाशित होती रही थी, पर उनके पाठक वर्ग वे अंग्रेजी शासक वर्ग थे जिन्हें भारतीयों को नियंत्रण करने के लिए हिंदी सिखने की ज़रूरत आन पड़ी थी | मूल्य इसलिए बहुत ही ऊँचा रखा गया था | फिर कहानियों को सामान्य जन के लिए प्रकाशित करने कि परंपरा शुरू हुई १९४६-४७ मे ‘रानी केतकी की कहानी के द्वारा | ‘देवरानी जेठानी की कहानी’ एक पाठ्य पुस्तक के रूप में सामने आयी |
रहस्य कथा की शुरुआत का श्रेय बालकृष्ण भट्ट को जाता है जिन्होंने १८७९ में अपने रहस्यकथा उपन्यास को धारावाहिक के रूप में हिंदी प्रदीप में प्रकाशित करवाया | इसका मुख्या पात्र ‘तिलकधारी’ पाठकों में कौतुहल की भावना प्रकट करने में सफल रहा और इसी के साथ शुरू हुई रहस्य कथा की एक अटूट परंपरा जो आज तक जारी है |
गया जिले के टेकारी राज्य में खत्री जी के पिता लाला ईश्वरदास जी का व्यापारिक सम्बन्ध था | चौबीस वर्ष की आयु में आपको चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका मिला और इसी से उन्हें अच्छी आमदनी भी प्राप्त हुई | यहीं से इन्हें अपने घुमक्कड़ी तबियत को बल मिला | यहीं पर ठेके का काम समाप्त हो जाने पर इन्होने मंबह्लाओ के लिए लेखन का काम शुरू किया जिससे ‘चन्द्रकान्ता’ अस्तित्व में आया | ‘चंद्रकांता’ हरिप्रकाश यन्त्रालय के स्वामी’ और उनके मित्र बाबु अमीर सिंह को पसंद आ गया और इस तरह यह उपन्यास अस्तित्व में आया | इसका कोई संस्करण अभी उपलब्ध नहीं | इसके तीन और खंड १९९१ में प्रकाशित हुए | सम्पूर्ण ‘चंद्रकांता’ के १९९१ की एक प्रति इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लन्दन में उपलब्ध है |
‘चंद्रकांता में दो पहाड़ी रजवाड़ों ‘नौगढ़’ और ‘विजयगढ़’ के संगर्ष की कहानी है | भारतेंदु हरिश्चंद्र के कठिन हिंदी लेखन से निकलकर पाठक अब ऐसे धरातल पड़ उतर आया जहाँ कल्पना की उड़ान एक नए बुलंदियों को छूने को तैयार थी | यहीं से लेखन की दो धाराएं दृष्टिगोचर होती हैं जो एक दुसरे से मिलने को कदापि तैयार न थी | आज भी ये धाराये समानांतर चल रही हैं और मिलने को तैयार नहीं | आखिर कौन से वे कारण थे जिन्होंने इन्हें मिलने से बाधित किया ? ये किसी अन्य आलेख का विषय हो सकती हैं |
बहरहाल खत्री जी तात्कालीन पाठकों ह्रदय और मर्म को पहचनाने में सफल रहे | ‘चंद्रकांता’ विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और नवगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र सिंह के प्रेम की कहानी है है | तीसरे कोण के रूप में चुनार के महाराज शिवदत्त हैं | ऐय्यारों से सजी इस महागाथा में ऐसे दांवपेंच हैं जो पाठकों को बांधे रखते हैं |यह कहना मुश्किल है की उन्हें इन कथानकों कि प्रेरणा कहाँ से मिली पर इसमें उनके घुमक्कड़ी तबियत के साथ-साथ उर्दू के पूर्व प्रकाशित दास्तान-इ-अमीर हमजा जैसी कृत्यों का अवस्य ही योगदान रहा होगा | पर जो भी हो खत्री जी रुढ़िवादी कदापि न थे वह उनके कृत्यों से साफ़ मालुम होता है | एक दृश्य में कुछ पात्र एक ऊँची दिवार के पर चढ़कर जब परली तरफ देखता है और हँसते हुए उधर कूद जाता है | यहाँ पर हमारे लेखक इसकिये लिए लाफिंग गैस का परिचय देते हैं | अपने आप खुलने या बंद होने वाले दरवाजे, पत्थर के बोलने वाले आदमी, तहखाने और तिलिस्म पाठक को नयी दुनिया में ले जाते हैं पर पाठक और चमत्कृत हो जाता है जब उसे मालुम होता है कि यह कोई जादु नहीं वरन साइंस का चमत्कार है | फिर भी उनकी कृतियाँ आलोचनाओं का केंद्र बनी | पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उनके लेखनी का ये करिश्मा ही था कि उनके तिलिस्म में भी विश्वसनीयता झलकती है | वैसे ‘चंद्रकांता’ सम्पूर्ण रूप में एक प्रेम कहानी ही है | इसलिए उनकी में कहानी में रोमांस है, प्रेम है, शोखियाँ हैं पर साथ ही काम के प्रति संयम है, उन्मुक्तता नहीं | नाटकीयता अवश्य है | कथानक में रहस्यों की अद्भुत श्रंखला है जो शायद हीं कभी उलझती प्रतीत होती हो | ये श्रंखला इसके बाद ‘चंद्रकांता संतति और ‘भूतनाथ’ में भी कायम है | इतना ही नहीं परंपरा उनके सुपुत्र दुर्गाप्रसाद खत्री ‘भूतनाथ’ और ‘रोहतासमठ’ में भी जारी रखते हैं |
अपनी भाषा के बारे में खत्री महाशय लिखते हैं कि “इसके पढने के लिए किसी कोष की तलाश नहीं करनी पड़ती” | उनकी भाषा में अलंकार नहीं है ,बस उस समय के बोलचाल की भाषा है जिससे सामान्य पाठकों को इससे दुरी प्रतीत नहीं होती |
उनके लेखन की परंपरा ‘चंद्रकांता संतति’ में भी जारी रहती है जो चंद्रकांता के संतति की कहानी है | इसके बाद ‘भूतनाथ’ का नाम आता है जिसके छह भाग उन्होंने लिखे | भूतनाथ उनका सबसे कमाल का पात्र है | शायद इस पात्र को खड़ा करने के लिए उन्होंने बहुत म्हणत किया होगा | इसके बाकी के २१ भाग दुर्गा प्रसाद खत्री ने लिखे | इस पात्र का जबरदस्त अनुकरण हुआ | उनकी अन्य किताबें हैं “
वीरेंद्रवीर अथवा कटोरा भर खून (१८९५) -अपराध कथा पुस्तक
नौलखा हार (१८९९) -अपराध कथा पुस्तक
काजर की कोठरी (१९०२)- -अपराध कथा पुस्तक
कुसुम कुमारी (१८९४-९८) -रोमांस
गुप्त गोदना (अपूर्ण, १९१३) -ऐतिहासिक
इतने सफल लेखक का अनुकरण न हो एस संभव नहीं | उनके जीवनकाल में ही कई तिलिस्मी पुस्तकें लिखी गयी पर कोई भी सफल न हो सका | दुर्गा प्रसाद खत्री ने कुछ सफलता अवश्य हासिल की और ‘भूतनाथ से इतर कुछ किताब अवश्य लिखे | उनके उपन्यास के रोमांस तत्त्व को लोगों ने बखूबी कॉपी किया पर वह आगे चलकर काम लोलुपता को आसानी से लांघ जाता है | यह शायद तीसरी धरा के रूप में विकसित होने लगती है |
इस रसिक और ऐतिहासित उपन्यासों की परंपरा को किशोरीलाल गोस्वामी ने आगे बढाया तो रहस्य परंपरा को आगे ले जाने का श्रेय गोपालराम गहमरी को जाता है | वह चर्चा फिर कभी |
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